Faridkot Wala Teeka
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
सिरीरागु कबीर जीअु का ॥
एकु सुआनु कै घरि गावणा
जननी जानत सुतु बडा होतु है इतना कु न जानै जि दिन दिन अवध घटतु
है ॥
हे भाई माता जानती है कि मेरा पुत्र वज़डा होता जाता है॥ इतनाकु भेद वा एहु
नहीण जानती के दिन दिन प्रती अवसथा घटती जाती है॥
मोर मोर करि अधिक लाडु धरि पेखत ही जमराअु हसै ॥१॥
पुत्र को मेरा मेरा करके वा मोरु तितरु हंसु ऐसे कह कह वा मोड़ मोड़ भाव
वारंवार अधिक ही लाड धारन करती है तिस की अगान सहित क्रिया को देख कर
जमराज हसता है भाव एहि कि जीव अपनी ममता मैण बंधा हूआ वज़डीआण आसां कर रहा है
अरु जमराज मारने वासते इसदे सास गिन रहा है॥१॥
पंना ९२ऐसा तैण जगु भरमि लाइआ ॥
कैसे बूझै जब मोहिआ है माइआ ॥१॥ रहाअु ॥
हे परमेसर तैने (जगु) जीअु ऐसा भरम विखे लाया है जब एहु तेरी माया करके
मोहिआ हूआ है तब तेरे को कैसे जाणे॥
कहत कबीर छोडि बिखिआ रस इतु संगति निहचअु मरणा ॥
स्री कबीर जी कहते हैण हे भाई यहि जो शबदादि बिखयोण का रसु है तिस का
तिआग कर किअुणकि (इतु संगति) इह जो बिखे बिकारोण की संगत है तिस करके निसचे
ही मरणा होता है॥
रमईआ जपहु प्राणी अनत जीवण बांणी इन बिधि भव सागरु तरणा ॥२॥
हे प्राणी जीव (रमईआ) जो सरब मैण एक रस वरत रहा है तिस को जपो तिसते
बिना (अन) और जो बांणी है सो (तजीवण) तयागंे योग है वा (अनत) बेअंत जीवणे की
यही बांणी है भाव एहि कि जनम मरण के रहत करणे वाली बांणी है वा रमईआ अनंत
रूप और जीवण रूप है (बांणी) बेद इस प्रकार कथन करता है (इनबिधि) इन प्रकार
भाव रमईए के जाप आदि प्रकारोण कर संसार समुंद्र से तरणा होता है॥
जाण तिसु भावै ता लागै भाअु ॥
भरमु भुलावा विचहु जाइ ॥अुपजै सहजु गिआन मति जागै ॥
हे भाई जो तिसु वहिगुरू को भाअुता है तौ इस जीव को (भाअु) प्रेम लागता है
और जब प्रेम मैण लगता है तब भ्रम जो सरुूप ते भुलाअुने वाला है सो तिस की बुधी के बीच
से चला जाता है और जब भ्रम चला जाता है तब मति विखे (सहजि) गानु अुतपति होता
है और (सहिज) सांती वाली बुधी जागती है वा सहजि गान अुपजता है गान करके
स्रेसट बुधी जागती है भाव एहि कि प्रकासवान होती है॥
गुर प्रसादि अंतरि लिव लागै ॥३॥