Faridkot Wala Teeka

Displaying Page 4185 of 4295 from Volume 0

सवईए महले तीजे के ३
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
स्री गुरू अमरदास साहिब तीसरे पातशाह जी के सुजस को वेदोण का सरूप जो भज़ट
हैण सो अुचारन करते हैण॥
सोई पुरखु सिवरि साचा जा का इकु नामु अछलु संसारे ॥
जिस वाहिगुरू का एक नाम संसार मैण अछल सरूप है सोई सचा (पुरख) सिमरो॥
जिनि भगत भवजल तारे सिमरहु सोई नामु परधानु ॥
जिस नाम के भगति जन संसार समुंद्र से तारे हैण जो सरब साधनोण मैण (परधानु)
मुख रूप नाम का जाप है सोई नाम मैण रिदे बीच सिमरन करता हूं॥
तितु नामि रसिकु नानकु लहणा थपिओ जेन स्रब सिधी ॥
तिस नाम के रसक जो स्री गुरू नानक देव जी हूए हैण तिस गुरू जी ने लहणे जी को
गुरिआई की गादी पर असथापन कीआ है जिस करके स्री गुरू अंगद साहिब जी को सरब
सिधीआण प्रापति भईआण है॥
कवि जन कल सबुधी कीरति जन अमरदास बिसरीया ॥
स्री कल कवी जी कहिते हैण तिस स्री गुरू अंगद साहिब जी के दास (सबुधी) स्रेसट
बुधी वाले जो गुरू अमरदास जी होते भए तिनोण कीकीरती जगत मैण विसथार होइ रही
है॥ सो कीरती कैसी विसत्रित भई है?
कीरति रवि किरणि प्रगटि संसारह साख तरोवर मवलसरा ॥
सो कीरती (रवि) सूरज की किरणोण वत संपूरन संसार मैण प्रगट होइ रही है भाव
प्रकाश रही है (साख) खेतीओण मैण औ (तरोवर) ब्रिछोण मैण भाव जड़ जंगम (सरा) सरब मैण वा
(सरा) समुंद्रां मैण (मवल) मिल रही है॥
अुतरि दखिंहि पुबि अरु पसमि जै जै कारु जपंथि नरा ॥
पूरब अुतर दखण पसचम इन चारोण दिसा मैण संपूरन पुरश जै जै कार कर
सतिगुर स्री गुरू अमरदास साहिब जी के नाम को जपते हैण॥
पंना १३९३
हरि नामु रसनि गुरमुखि बरदायअु अुलटि गंग पसमि धरीआ ॥
स्री गुरू अंगद साहिब जी ने हे गुरू अमरदास जी आपको रसना करके हरी के
नाम का मुख ते वर दीआ है वा हे स्री गुरू अमरदास साहिब जी आपने मुख दारे रसना
करके हरी के नाम को वरताया है अरथात अुपदेस कीआ है और गंगा पूरब दिसा जाती
को अुलटाइ कर पसचम मैण धर दीआ है भाव यहि पिता के बिभूती के मालक पुत्र ही होते
हैण परंतू सतिगुर ने साहिबजादिओण के होतिआण तिन को तिआग करके अपने सिखोण को
गुरिआई बखशी है वाबाहिर जाती ब्रिती को अंतर मुख कीआ है॥
सोई नामु अछलु भगतह भव तारणु अमरदास गुर कअु फुरिआ ॥१॥
जो नाम भगति जनोण के संसार समुंद्र से तारनेहारा अछल सरूप है सोई नाम स्री
गुरू अमरदास साहिब जी को फुरिआ है भाव प्रापत हूआ है॥१॥
सिमरहि सोई नामु जख अरु किंनर साधिक सिध समाधि हरा ॥

Displaying Page 4185 of 4295 from Volume 0