Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १४५

आइ कहो तिन इस के पास।
प्रभु नमिज़त दिहु बंधन काटि।
तुझ को होइ न जम की बाट ॥२९॥
सुनि करि सुकचो१ रिदे बिसाला।
-जे मुझ जान लेहि महिपाला२।
गहि लैहै सगरो परवारा।
ग़ालम बडो करावहि मारा- ॥३०॥
त्रास पाइ करि बहुर बिचारा।
-गुरु मुझ प्रति अुपदेश अुचारा।
प्रभु नमिज़त कारज करि दीजै।
नही बिलब किसी बिधि कीजै ॥३१॥
सो नहिण छोडौण, होइ सु होइ।
संत कहे लोकन सुख दोइ३-।
इम बिचारि करि बिलम न कीन।
अुठि ततकाल काट करि दीन ॥३२॥
आशिख४ देति गए निज देश।
अुपजो इस के गान विशेश।
इक नाई धिंा चलि आयो।
श्री अंगद पग सीस निवायो ॥३३॥
बैठि गयो ढिग सिख गन हेरे।
करहिण परसपर सेव घनेरे।
तिन महिण मिलि सेवा कहु लागो।
भली जानि करि अुर अनुरागो५ ॥३४॥तपत नीर करिवाइ शनान।
वसत्र पखारहि मल करि हान६।
चरन चांप, हांकति है बायु७।


१संकोच कीता भाव डरिआ।
२राजा।
३संतां दे कहे ळ (कमाअुण नाल) दोहां लोकाण दा सुख हुंदा है।
४असीस।
५प्रेम विच आइआ।
६मैल ळ नाश करके।
७मुज़ठी चांपी करदा है झज़लदा है, वायू (भाव पज़खा)।

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