Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १५१
१२. ।मज़लू शाही, किदारी, दीपा, नराइं दास, बूला प्रसंग॥
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दोहरा: मज़लू शाह आइ करि,
श्री अंगद के पास।
करि बंदन बैठो निकटि,
बिनती कीनि प्रकाश ॥१॥
चौपई: श्री गुर! मै कारन कज़लान१।
आयो सुनि तुम२ सुजसु महान।
कीजहि अबि अपनो अुपदेश।
जिस ते बिनसहिण सकल कलेश ॥२॥
करति चाकरी मुलनि केरी।
करौण जीवका तहां घनेरी।
हलति पलति मुख अूजल रहै।
असु करनी को ममु चित चहै ॥३॥
सुनि करि शरधा पिख करि भारे।
श्री अंगदु गुरु बाक अुचारे।
भाईमज़लू रिदे बिचारहु।
देह अनित सदा निरधारहु ॥४॥
सो तौ म्रितक जानि ही लीजै।
इस हित चित नहिण, संसा कीजै।
आतम सदा साच ही जानो।
किस को मारो मरहि, न मानो३ ॥५॥
पावक दाह करति नही तिसै।
जल न डुबाइ सकहि निज बिसै४।
शसत्रनि ते नहिण छेदो५ जाइ।
जिसि को पौन न सकहि डुलाइ* ॥६॥
काल बिनाशक सभिनि बिसाला।
१मैण (आपणी) मुकती वासते।
२आप दा।
३ना मंनो कि किसे दे मारिआण इह (आतमा) मरेगा (अ) मंनो कि मारिआण नहीण मरेगा।
४बिखे = विच।
५कज़टिआ।
*पाछ-अुठाइ।