Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १६०

नहिण अुकसे१ सु बिनाशी२ भए ॥१३॥
इस प्रकार गुर फेरा पाइ।
बहुर खडूर बिराजे आइ।
श्री अंगद नित बेपरवाह।
नीर कमल सम लेप न काहि ॥१४॥
बुरी भली कुछ सुनहिण न कहैण।
अपने परचे महिण नित रहैण।
आश्रम बरन रीति जो धरिहीण।
सो गुरु संगति को नहिण करिहीण ॥१५॥
इक समान आश्रम अरु धरम।
श्री गुर के इनि ते निहभरम३।
माटी के बासन को देखि।
मिलहिण न करम जु करति विशेख४ ॥१६॥
प्रेम भगति परमेशुर केरी।
अुपदेशहिण, इह मुज़ख बडेरी।
लोक बेद कुल करम प्रचारा।
करहिण नहीण, अर भै नहिण धारा ॥१७॥
यां ते लोक समीप न आवैण।
देखि दूर ते सीस निवावैण।
संगति करहिण न बैठहिण पासि।
सुनहिण न बचन भाग घट जास५ ॥१८॥
श्री नानक की संगतिजेई।
दूर दूर ते आवहि तेई।
दरशन परसहिण बाणछति६ पावैण।
बहुर आपने सदन सिधावैण ॥१९॥
हुतो चअुधरी तिसी गिराअुण।
भाअु भगति को लखहि न नाअुण।


१अुज़चे ना होए।
२नाश।
३भाव आश्रम अर धरमां तोण श्री गुरू जी निहभरम सन।
४भाव करमकाणडी नहीण मिलदे सन।
५जिन्हां दे भाग घज़ट नहीण हन।
६मनइज़छत।

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