Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १७२

गंगा रिदे अराधतो* -हे भीशम माता१!
अुज़तम तीरथ सभिनि महिण, बाणछत की दाता२ ॥३४॥
ब्रहमलोक ते जतन करि, भागीरथ आनी३।
साठ हग़ार अुधार करि,इह कथा महांनी।
सुरमानी, हानी अघनि, जानी त्रिहु लोका४।
सुखदानी, रानी जगति, तुव बेग अरोका५ ॥३५॥
करहु सफल मम कामना, गुरु देहु मिलाई-।
इस प्रकार बिनती भनहि,
बहु बिधि बडिआई।
निसा बिती दिन आगलो, दुख साथ बितावा।
खान पान कुछ नहिण रुची, बैराग अुपावा ॥३६॥
बहुरु भई जबि जामनी, सोचति चित जागा।
लिव लागहि नहिण नीणद हुइ, जिन मन अनुरागा।
श्री परमेशुर सुरसुरी, परसंसति६ दोअू।
बिनै भनति मन दीन बनि, गुन गन गिनि सोअू७ ॥३७॥
नाअुण थाअुण बिन रूप के, सतिगुर को धावै।
-पूरहु मेरी आस को-, ऐसे अुर भावै।
-सरब थान सभि काल महिण, सतिगुर है बापे।
बिनती सुनि कै श्रोन मैण, दिहु दरशन आपे ॥३८॥
मैण परखन जानहु नहीण, गुर पूरन केहू८।
अपनो बिरद पछानि कै, निज दरशन देहू।
इमि इक लिव लागी रिदै, तजि कारज आना।
खान पान निद्रा नहीण, द्रिग नीर चलाना ॥३९॥


*इह गंगा आदि दी अुसततीआण पहिले खिआलां अनुसार हन,जदोण अजे सतिगुरू अंगद देव जी
दी शरन ळ प्रापति नहीण होए सन।
१गंगा दा इक नाम है, राजा शांतनु तोण गंगा दे पेटोण भीशम दा जनम होइआ सी।
२भाव मन मंगी मुराद दी दाती हैण तूं।
३कथा है कि सूरजवंसी राजा दलीप दे पुज़त्र भगीरथ ने तपज़सा करके वज़डिआण दे अुधार वासते
गंगा प्रिथवी ते आणदी सी।
४देवतिआण दी मंनी होई, नाश करता पापां दी ते तिंनां लोकाण विखे जाणी होई।
५तेरा प्रवाह रोकिआ नहीण जाणदा।
६अुसतति करदे हन।
७सारे गुण गिंके।
८कौं है।

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