Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १८५
सुधि भूली करि गुर निरजासि१ ॥१०॥
तन करि करहिण कार सभि सेवा
मन करि गुरु को सदा सम्हालि।
केतिक नर जबि मिलहिण आनि करि
बूझहिण सदन२ आपने चालि३।
निज बंधप४ को सुध लिहु नीके,
कुटंब मिलहु तुझ चहति बिसाल।
कोण इत बैठि रहो का लेवहिण?
सभि बिधि संकट सहैण कराल ॥११॥तिन सोण कहैण न हमरा कोई
हम किसहूं के नहिण किस काल।
जिमि प्रवाह मैण त्रिं मिलि जावहिण
तथा मेलि सभि को सभि नाल।
अुतरनि पार, तरी५+ पर मेला,
पुन बिछुरहि, नहिण करहि संभाल।
आइ पाहुनो निस बिसरामहिण६,
होति प्राति७ मारग को चालि८ ॥१२॥
अबि मेरे सतिगुर हैण सभि किछु,
सदन, कुटंब, पिता अरु मात९।
इही सहाइक होहिण अंत को,
रहि एकल जहिण कोइ न जाति।
जीवति प्रान अधार इही हैण,
बिन पग देखे कछु न सुहाति।
इमि सुनि लोक पयानहिण घर को,
१गुरू सही करके।
२घर।
३चज़ल।
४संबंधीआण।
५बेड़ी।
+पा:-तही।
६रात आराम करदा है।
७सवेरा हुंदिआण।
८राह टुर पैणदा है।
९अंत ळ (जद) इकज़लिआण रहि जाणा है ते नाल जिज़थे किसे नहीण जाण इहो (गुरू) सहाई होणगे।