Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २४६
नमो नमो गुर गान अुदार!
सुमग बतावन महिण परधान।
रावरि के समान नहिण आन ॥५२॥
श्री गुर अंगद तबहि बखाना।
हम पीछै का क्रित तैण ठाना?
घन बरखाइ तपा मरवायो।
अपन आप को महिद जनायो ॥५३॥
सतिगुरको घर है नित नीवा।
होनि हंकार थांव नहिण थीवा*१।
पापी तपा कुकरम करंता।
अंत समै दुख नरक लहंता ॥५४॥
फलदाता ईशुर सभि काणहू।
जीव अबल२ किस गिनती मांहू।
कारन करन एक जग नाथा।
करति करावति सो सभि साथा ॥५५॥
अपन आप निज क्रित प्रक्रित महिण।
नही अरोपहिण कबि सुधीर लहि३।
एकंकार आसरो करि कै।
नहीण जनावहिण आपा हरि कै४ ॥५६॥
सुनि श्री अमर बंदना ठानी।
भो गुर! बखशहु मति अनुजानी।
अबि ते फेर न करिहौण ऐसे।
आपा मैण न जनावौण कैसे ॥५७॥
इहु तुमरो अपराध महाना।
सहो न गयो तबहि क्रित ठाना।
*पा:-मन हंकार थान नहि थीवाण।
१हंकार होण दा थां नहीण।
२बल तोण रहित।
३तूं समझ लै आपणे आप (आतमा) विच कदे बुज़धीमान लोक निज क्रितज़त या पर क्रितज़त धरम
अरोपन नहीण करदे।
(अ) (जीव) आपो आपणे सुभाव विच आप क्रित करदे हन, सुधीर इह देखके (ईशर ही करन
कारन ते फल दाता है अपनी हंता ममता ईशर विच) नहीण अरोपदे।
४आपा भाव दूरकरके।