Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २९०
दासन सुखदाता पुरख बिधाता,
अन भै राता रूप थिरे१।
जै जै गुरदेवा, अलख अभेवा,
सुर नर सेवा देव हरे२ ॥२६॥
कलि कलुख निकंदन३, जग गुर बंदन,
तारहु मंदन, करिकरुना४।
सभिहिनि के सामी, अंतरजामी
निति निशकामी दुख दरना५।
अुरि इज़छा पूरनि, शज़त्रन* चूरनि,
दासनि तूरनि दे सरना६।
जै जै गुर अमरं, पति सभि अमरं,
सद अज अमरं, हम परना७ ॥२७॥
पाधड़ी छंद: इस भांति सिज़ख सभि सतुति कीन।
इम देहु दरस हम को प्रबीन!
दासन मझार बैठहु सदीव।
सभि को अलब अबि आप थीव ॥२८॥
श्री नानक अंगद रूप दोइ।
परलोक गमन बैकुंठ सोइ।
गुर भए आप तिन के सथान।
दिहु नाम दान, तारहु जहान ॥२९॥
सुनि बिनै सभिनि ते अुचित जोइ।
मुख भनो, भलो इह रीति होइ८।
सिज़खन मझार हमरो निवास।
चित चहहि सदा पूरहिण९ सु आस ॥३०॥
१गिआन (रूपी वाहिगुरू) विच रज़ते होए (तुसीण) सरूप इसथित हो।
२देवतिआण मनुखां कर सेवन योग प्रकाश रूप हरी।
३कलजुग दे पाप कज़टं वाले।
४तारो मंदां ळ क्रिपा करके।
५सदा कामना रहित हो ते दुखां ळ दलन वाले हो।
*पा:-संकट।
६दासां ळ छेती आसरा देण वाले हो।७जै गुरू अमर जी आप सभ देवतिआण दे सुआमी, सदा अजै, मौत तोण रहित, साडा आसरा हो।
८चंगा इसे तर्हां होवेगा।
९पूरन कराणगे।