Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुरप्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३२१
इमि कहि न्रिप को बिदा करो प्रभु,
गयो हरीपुर अपने देश।
सिमरन करति रहो श्री सतिगुर
सावं मल को पूज विशेश।
सचिवन सहत प्रजा सभि मानहिण
अुज़तम देति अकोर१ हमेश।
गोइंदवाल वसहि कबि आइ२ सु,
कबहूं जाइ समीप नरेश ॥१८॥
इक सेवक नित लगर के हित
समधा३ बन ते भार सु लाइ।
प्रीति रिदै सतिगुर पद पंकज
अपर न प्रेम करे किसि थाइण।
क्रिआ करम, बिवहार अचारनि,
जुकति न कोअू जानि सकाइ।
पठनि सुनिन, बोलनि गति मिलिबो,
देन, लेन, कुछ नहीण लखाइ४ ॥१९॥
जाप मंत्र कुछ जप नहिण जानहिण
सेवा करनि बिखै हित ठानि।
सज़चनि सज़च बके५ इक मुख ते,
दूजी बात धरहि नहिण कान।
अूठति बैठति आवति जाण ते
बन महिण पुर महिण सभि ही थान।
सज़चनि सच बचनइमि अुचरहि,
मन राखहि सतिगुर को धान ॥२०॥
सिख संगति सगरे ही सुनि करि
सज़चनि सज़च नाम कहिण तांहि।
दया करहिण तिस पर हित धारहिण,
हसहिण बहुत सभि अुर हरखाहिण।
१भेटा।
२अुह (सावं मल)।
३लकड़ां दा भार।
४भाव, सिज़धा ते सूधा अति दा सी।
५बोलदा सी।