Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३४४

किते हरेखा१ अूचो करै।
कित चंचलता जुति पग धरै।
कितिक दूर ते कोशठ२ देखा।
थिति है३ अूचो कीन हिरेखा ॥७॥बहुर अगारी कीन पयाना।
गई तहां कोशठ जिस थाना।
दूर दूर फिर चहुणदिशि तांही।
पुन दर दिश गमनी हुइ पाही ॥८॥
तहां पहुणच करि सीस झुकावा।
पुन अूचे हिहनाट सुनावा।
संगति देखि देखि बिसमावै।
-इहां न सतिगुर कहूं दिसावैण ॥९॥
बड़वा नहिण अबि आगे जावति।
जनु लछमी, इत बिशनु बतावति।
राजशिरी४ पुरहूत खुजंती।
अबि इस थल को नहीण तजंती- ॥१०॥
पिख बुज़ढे सभि को समझायो।
इह कोठा किस को बनवायो।
दर देखहु नहिण पज़यति याही५।
बड़वा रही सथिर हुइ पाही६ ॥११॥
प्रथम प्रकरमा इस की करी।
दूर दूर चहुण दिश महिण फिरी।
सीस झुकाइ बंदना ठानी।
थिर अबि रही, गुरू इसथानी७ ॥१२॥
तबि कोशठ के चहुणदिश फिरिओ।
दर को थिरो निहारनि करिओ।


१हिंकंा।
२कोठा।
३खड़ी होके।
४सची। (अ) राज लछमी।
५दिज़सदा नहीण इस दा दरवाजा, देखो।
६इस दे कोल ही।
७(तांते) गुरू जी इस थां ते (होणगे)।

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