Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३८०
मोहण मल अमरू के सहिता।
चारहुण आइ लगे गुर चरनी।
कर जोरति, कहिण राखहु शरनी ॥२४॥
बिरद रीब निवाज तुमारा।
अुपदेशहु जिमि होहि अुधारा।
श्री गुर अमरदास तबि कहो।
हअुमैण करि बंधन* को लहो ॥२५॥
अंहोवति ही इहु बनिआई।
बुरी बलाइ सभिनि लपटाई।
परमेशुर कहु देति भुलाइ।
अनहोवति दुख दे समुदाइ ॥२६॥
यां ते इस को दीजहि तागे।
प्रभु के संग गंढ१ तबि लागे।
२चारहुण सुनि पुनि सतिगुर पूछे।
किमि इस ते हम होवहिण छूछे? ॥२७॥
कहो कि जानहु तन को कूरा।
बिनसै होइ समां जबि पूरा।
सने सने इसते ब्रिति छोरि।
करहु लगावन आतम ओरि ॥२८॥
सहिन शीलता छिमा धरीजै।
किस के संग न दैश रचीजै।
बाक कठोर अनादर करे।
सुनि करि तपहि न रिसि कबि धरे३+ ॥२९॥
सुनि अुपदेश करन सो लागे।
अंतर ब्रिती धरहिण बडभागे।
गंगू अपर सहारू भारू।
*पा:-बंदन।
१मेल, मित्रता।
२भाव मेल हो जाणदा है।
३धारन करे।
+बिनां नाम दे ब्रिती साधी जाणी गुरमत विच कठन दज़सी है-
सोधत सोधत सोधि बीचारा ॥
बिनु हरि भजन नहीण छुटकारा॥