Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) ४७४

लखहु भली सो धारनि कीजै।
शर्हा चलहु कलमे कहु पढि मुख।
देहि शाहु भोगहु सभि बिधि सुख ॥२८॥
जे हठ करहु न मानहु एहो।
करामात कामल हुइ देहो।
जिम हग़रत तुम ते करिवावै।
तिम करि देहु देखि हरखावै ॥२९॥
रामराइ जिम तुमरो पोता।
सदा शाहु अनुसारी होता।
बार सैणकरे अग़मत दीनी।
जिम हग़रत कहि तिम तिन कीनी ॥३०॥
दरब हग़ारहु नित प्रति पावै।
अपनी संगति सदा ब्रिधावै।
जिस को भा ऐशरज बिलद।
तुम भी हूजहु तिसहि मनिद ॥३१॥
जे इह दोनहु नांहि न मानहु।
अपने पान प्रान कहु हानहु१।
नहि तागहि, कबि जीवति तोही।
अधिक हठीला गनीयहि ओही ॥३२॥
शर्हा मानि, कै२ अजमत दैन।
किधोण म्रितू अपनी करि लैन।
इन तीनहु महि लखहु जु नीकी।
हियके बीच करहु सो ठीकी३ ॥३३॥
तिन ते सुनि श्री तेग बहादर।
धरम निबाहनि बिखै बहादर।
अुज़तर भनो धरम हम हिंदू। {विशेश टूक}
अति प्रिय को किम करहि निकंदू ॥३४॥
लोक प्रलोक बिखै सुखदानी।
आन न पईयति जाणहि समानी।


१आपणे हज़थीण प्राण दा नाश करोगे।
२या।
३हिरदे विच ठीक कर लओ भाव सोच लओ।

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