Faridkot Wala Teeka
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
सिरीरागु महला १ पहरे घरु १ ॥
पहिलै पहरै रैंि कै वणजारिआ मित्रा हुकमि पइआ गरभासि ॥
(पहिलै पहरै) अवसथा रूप रात्री के प्रिथम भाग मै हे बनजारे मित्र परमेसर की
आगया करके जीव माता के गरभ मै पड़ा है (गरभ) अुदर और (आसि) सथान जिसमै
बचा रहिता है॥
अुरध तपु अंतरि करे वणजारिआ मित्रा खसम सेती अरदासि ॥
हे जीव मित्र करमोण का बपार करने वाले (अुरध) अुपर को पैर और नीचे को
सरीर ऐसी दसा हो कर गरभ मै तपु करता है और (खसम) सामी जो वाहिगुरू है तिस के
पास बेनती करता है कि हे नाथ मुझ को इस दुख सेबचाइ लीजीए॥ जब तक मै जीवोणगा
तेरा ही भजन करूंगा॥
खसम सेती अरदासि वखाणै अुरध धिआनि लिव लागा ॥
इसी प्रकार स्री वाहिगुरू के (धिआनि) मै ब्रिती लगाइकर अुलटा हूआ बेनती
करन लागा हूआ था॥
ना मरजादु आइआ कलि भीतरि बाहुड़ि जासी नागा ॥
(नामरजादु) बेम्रजादा भाव जनेअू आदक ब्रण आस्रम के संसकारोण से रहत आया
वा बसत्रोण से बिना नगन ही जनमता भया (कलिभीतरि) कलपना के बीच लगा हूआ
(बाहुड़ि) पुना: भी नगन ही जाएगा नगन कहिने का प्रयोजन एह है कि पदारथ ना कोई
साथ आइआ है और ना कोई साथ जाएगा।
जैसी कलम वुड़ी है मसतकि तैसी जीअड़े पासि ॥
जिस प्रकार सुख तथा दुख देने वाली कलम मसतकि पर (वुड़ी) चल गई है तैसी
ही संपदा तथा अपदा जीव के पास बनी रहती है॥
कहु नानक प्राणी पहिलै पहरै हुकमि पइआ गरभासि ॥१॥
स्री गुरू जी कहते हैण हे भाई जीव अवसथा रूप रात्री दे प्रिथम भाग मै इस
प्रकार हुकम कर गरभ मै प्रापति भया अब बाल अवसथा कथन करते हैण॥
पंना ७५
दूजै पहरै रैंि कै वणजारिआ मित्रा विसरि गइआ धिआनु ॥
दूसरे भागअवसथा रूप रात्री के हे वणजारे मित्र जब जनम स्री वाहिगुरू जी का
धान भूल गया॥
हथो हथि नचाईऐ वणजारिआ मित्रा जिअु जसुदा घरि कानु ॥
कबी पिता और कबी माता तथा और संबंधी जन हाथोण पर अुठाइकर (नचाईऐ)
प्रेम कर अुछलावते हैण जिस प्रकार जसुधा के घर मै क्रिशन को लडावते थे॥
हथो हथि नचाईऐ प्राणी मात कहै सुतु मेरा ॥
हथो हथी प्राणी जीव को नचाईता है माता कहिती है मेरा पुत्र है।
चेति अचेत मूड़ मन मेरे अंति नही कछु तेरा ॥
हे (अचेत) भजन हीन (मूड़) अगयात मेरे मन तूं चेत सिमरन कर कोणकि इस
घरि मैण तो तेरा अंत को कुछ भी नहीण है॥