Faridkot Wala Teeka

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बसंत की वार महलु ५
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
हरि का नामु धिआइ कै होहु हरिआ भाई ॥
करमि लिखंतै पाईऐ इह रुति सुहाई ॥
हे भाई हरी के नाम को (धिआइ) जप करके हरिआ होहु भाव गुणों सहत होहु
परंतू सुभ करम लिखे हूए होवैण तौ हरीका धावना पाईता है॥ नाम जपणे कोएह मानुख
देही रूपी (रुति) सुहाई सोभनीक है॥
वणु त्रिंु त्रिभवणु मअुलिआ अंम्रित फलु पाई ॥
जिस सता कर वण त्रिं अर त्रिभवण रूप ब्रहमाणड प्रफुलत हो रहा है सो अंम्रित
फल रूप चेतन सता पाई है॥
मिलि साधू सुखु अूपजै लथी सभ छाई ॥
साधू के मिलाप से सुखु अुतपत हुंदा है इसी कर सतसंग दारा हम को सुख हूआ
है औरु अंतहकरन से अविदिआ रूप फाई अुतर गई है॥
नानकु सिमरै एकु नामु फिरि बहुड़ि न धाई ॥१॥
स्री गुरू जी कहते हैण एक नाम के सिमरने करके फिरि फिरि चौरासी मैण नहीण
दौड़ीता भाव जनम मरन से रहित होवीता है॥१॥
पंजे बधे महाबली करि सचा ढोआ ॥
सचा जो परमेसर है तिस का (ढोआ) आसरा वा मिलाप करके जिसने पंज
कामादिक बिकार बांधे हैण॥
आपणे चरण जपाइअनु विचि दयु खड़ोआ ॥
तिसके बीच (दयु) वाहिगुरू आप खड़ा हो कर अरथात रखक होके अपणे चरन
जपाए हैण भाव अपणे चरनोण का धानु कराया है॥
रोग सोग सभि मिटि गए नित नवा निरोआ ॥
तिसके रोग और सोग सभदूर हो गए हैण और वहु नित ही (नवा) नवीन अरथात
खुसी औ (निरोआ) अरोग हूआ है भाव हंकार रोग से रहित हूआ है॥
दिनु रैंि नामु धिआइदा फिरि पाइ न मोआ ॥
सो राति दिन नाम को धावता है फिर वहु मुरझावणा नहीण पावता है भाव
सोकवान नहीण होता वा (मोआ) मरणु नहीण पावता है॥
जिस ते अुपजिआ नानका सोई फिरि होआ ॥२॥
स्री गुरू जी कहते हैण जहां से जीअु अुतपंन हूआ था वही फिर हूआ भाव
परमेसर साथ अभेद हूआ है॥२॥
प्रशन:
किथहु अुपजै कह रहै कह माहि समावै ॥
कहां से जगत अुतपत होता है और कहां इसथित रहिता है और अंत को किस मैण
समावता है? इस का अुज़त्र॥ जिसते जिस परमेसर से जगत अुतपत हूआ है तिसी मैण
इसथत है पुनह अंत को भी सोई रूप हूआ है भाव से कलपति वसतू अधिसठान से भिंन

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