Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ७) २४

२. ।भाई गुरदास ने घोड़े ख्रीदंे॥
१ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ७ अगला अंसू>>३
दोहरा: कुछक कथा गुरदास की, सुनहु सकलगुरदास१!
गुर माया दुशतर महां, करि लीजहि निरजास२ ॥१॥
चौपई: एक दिवस गुर सभा मझारे।
सिदकी सिख बैठे मद धारे।
भगतू बहिलो आदिक थिरे।
जेठा बिधीआ शुभ मति करे ॥२॥
बैठो ढिग प्रबीन गुरदास।
सिज़खी के३ हुइ बाक बिलास।
कहति भए गुर करुना धरैण।
माया ते सु बचावनि करैण ॥३॥
मन ठहिरावैण चरन मझारा।
सहै कसौटी सो सिख भारा।
गुर के चरित न जाहि बिचारे४।
पिखि करि भरमहि सिज़ख बिचारे ॥४॥
सभि महि तबि बोलो गुरदास।
जे करि होइ सिज़ख गुर पास।
सिज़खी को निरबाहनि करै।
जोण कोण करि अुर भरम न धरै ॥५॥
जे करि सांग अरंभैण परखनि५।
धारैण रूप बिपरजै कुछ तन६।
किधौण गिरा कहि और प्रकारी।
कै सुभाव बिज़प्रीतै धारी ॥६॥
किधोण अजोग करावहि कैसे।
आगे कही करी नहि जैसे७।


१हे गुरू जी दे सिखो!२निरने कर लओ।
३सिज़खी बाबत।
४भाव बुज़धी नाल समझं लगिआण कई वेर समझे नहीण पैणदे।
५सांग अरंभ देण (गुरू जी) परखन लई सिखां ळ।
६सरीर दा।
७जिवेण ना (किसे) अज़गे कही होवे ते ना (किसे) कीती होवे।

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