Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १२६
सुंदर और नवीन धरै तन,
आइ सभा थिति है सजि कै।
श्री गुर तोण धरि दूसरु रूप
बिराजति, सिज़ख सुखी जजिकै१।
सेवक एक ही जानति हैण
गन२ निदक नीच रहैण लजिकै३ ॥२६॥
जोति ते जोति प्रकाश रही
जिम लागे मसाल ते दूजी मसाला।
घाट न बाढ बनै कबहूं
जुग४ होइ समान५ प्रकाश बिसाला।
आनि सुनैण अुपदेश किते नर
जागि अुठे जिन भाग सु भाला६।
श्री गुर नानक को नित ही
चितवंति रहैण बड रूप क्रिपाला७ ॥२७॥
चौपई: बुज़ढे सोण गोशट निति ठांनै।
श्री सतिगुर के चलति८ महानै।
जनम आदि अब लगि जोजानै।
सो सभि रीती भले बखानै९ ॥२८॥
तबि बुज़ढा बोलो सुख पाइ।
ऐसो एक पुरख लखि जाइ१०।
बाला जाट वसहि तलवंडी।
तिनि बिलास११ देखो नवखंडी१२ ॥२९॥
१सिज़ख सुखी हुंदे ने पूज के।
२समूह।
३शरमा के।
४दोवेण।
५इको जिही।
६मज़थे दे स्रेशट भाग।
७भाव, श्री गुरू अंगद साहिब जी।
८चरिज़तर।
९चंगी तर्हां कहे।
१०जाणिआ जाणदा है।
११कौतक।
१२नवाण खंडां दा।