Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि २) १२४
१४. ।अंम्रितसर कार नित क्रिया। हिंदाल। भाई गुरदास। श्रीचंद मेल॥
१३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि २ अगला अंसू>> १५
दोहरा: रमत राम जबि गुर भे१, तारन सिज़ख अपार।
ऐसे पूरन ब्रहम कअु, बंदअुण* बारं बार ॥१॥
चौपई: बैठि इकागर गुरू दिआरा।
मन मैण ऐसे करति बिचारा।
-जिन सिअुण हमरी प्रीति सु पूती।
सो तो गए बिकुंठ पहूती ॥२॥
गुर देखे बिन नीणद न आवै।
जिअु अंबुज२ रवि बिन कुमलावै-।
करि विवेक मन को ठहिरायो।
सज़तिनाम सिमरनि चित लायो ॥३॥
बहुरो मन महिण कीन बिचारा।
-सो करीए जो गुरू अुचारा।
बिलम खोइ करि करीए सोई।
जैसे कारज शीघ्र सु होई- ॥४॥
ताल बनावन चाहिसि भले।
कहो सभिनि सोण माझै चलेण।
मोहिन मुहरी संग सु कहैण।
हम कअु गुर की आगा अहै ॥५॥
सुधा सरोवर को बनिवावनि।
तुम भी आइसु करहु अलावनि।
अपन मनोरथ सभिनि सुनावा।
प्रेम महां परिवार बधावा ॥६॥
मिलि करि गवन कीन ततकालहि।
सिज़ख संगतां संग बिसालहि।
भए तुरंगन पर असवार।
जोपारो ने दीनि अुदार ॥७॥
चंचल महां चलति गुन रूरी।
१जो राम (विआप) रहिआ है (अुही) रामदास होके जदोण गुरू होए। गुरवाक भी है:- हरि जीअु
नामु परिओ रामदासु॥
*पा:-बंदन।
२कवल।