Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) १२६
१६. ।प्रिथीए ने सुलही ळ सज़दिआ॥
१५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ४ अगला अंसू>>१७
दोहरा: श्री गुरु इम सुत बाह कै, लीनो सुजसु बिलद।
जाचक जहि कहि कहति भे, देश बिदेशनि ब्रिंद ॥१॥
चौपई: लोक हग़ारहु अुतसव देखा।
सभिहिनि कअु भा मोद विशेखा।
जित जित देश गयो चलि जोई।
बाह कथा कहु भाखति सोई ॥२॥
अपर प्रसंग हटी जु सगाई१।
इस ते भी कहि गुर बडिआई।
आज शाहु को महां दिवान।
जिस की मानहि आन जहान ॥३॥
फेरो तिसी सुता का नाता।
कहि बहु रहो न मानी बाता।
इक दै बेर पठाए लागी।
नहीण लीनि, चित चिंता जागी२ ॥४॥
दरबदेनि को कहो घनेरे।
-करौण काज मैण शाहु सु नेरे-।तअू न श्री अरजन मन मानी।
जानो -मूढि महां मनमानी- ॥५॥
करि हंकार जु बोलि बिगारी३।
सिज़खनि भने लखी गुरु गारी४।
करो अनादर नीच समाना।
मान महान ठानतो माना५ ॥६॥
कुल खज़त्रीनि जहां कहि जोई६।
हान भई चंदू की सोई*।
१जो मंंी मोड़ी (चंदू वाली)।
२चंदू ळ।
३हंकार नाल जो बोल विगाड़ कीता।
४सिज़खां ने (आपणे गुरू ळ) गाल्ही (दिज़ती) लखके (गुराण ळ) कहि दिज़ता (कि नाता ना लओ) (अ)
सिज़खां दे कहे गुरू जी ने (गुरू घर ळ ओह) गाल्ही समझी।
५(चंदू ने) आप ळ वज़डा मंनके हंकार कीता सी।
६खज़त्रीआण दी कुल जिज़थे किज़थे जो है।
*पा:-जोई।