Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १३६

कहोण कहां लग जुज़ध अखारा।
लोथैण बिथरी धरा मझारा ॥४४॥
जबहि ब्रिंद तरवारैण चाली।
रंग भूमिका१ पसरी लाली।
पातिशाहि को लशकर भागा।
नहीण पठाननि को लिय आगा२ ॥४५॥
तछामुज़छ३ तरवारनि करि कै।
काइर भजे न हेरति फिरि कै।
तब हुमाअुण रजधानी तागे।
लशकर मरो चलो तब भागे ॥४६॥
दिज़ली आइ पठाननि छीनी।
अपनी दोही फेरनि कीनी।
बाकुल है हुमाअुण तब कहो।
सेवक निज नजीक जो लहो ॥४७॥श्री नानक को सेवक पूरा।
है कि नहीण गादी पर रूरा४?
तिह सोण करहिण मेल हम जाई।
मम पित बाबर तहिण ते पाई ॥४८॥
कही५ -पुशत लौ६- फुरो न बैना।
बूझहिण तिह सोण जिह अुर भै ना।
तब वग़ीर ने कहा सुनाई।
गुर अंगद बैठो तिन थाईण ॥४९॥
आरफ कामल वली विलाइत७।


१जंग भूमी ते।
२पठां दे हरौल दी बी ताब ना लिआ सके। तुरकी विच हरावल फौज दे मोहरी दसते ळ कहिणदे
हन।
३टोटे टोटे करके।
४सुहणा।
५आखी सी।
६पीड़्हीआण तक।
७आरिफ=रब ळ पछांन वाला, ब्रहम गानी। कमाल=पूरन। वली=रब दा समीपी, मिज़त्र।
विलायत=साईण दी समीपता।
(अ) विलायत=देश, मुराद अकसर अफगानिसतान, तुरकिसितान, ईरान आदिक तोण हुंदी सी,
भाव है कि दूर देशां विच वली प्रसिज़ध हन।

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