Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन १) १३४
राजी अहैण अनद के साथा ॥२८॥
सुनति नाथ बोलो तिह समो।
गुर गोबिंद सिंघ लहु मम नमो।
मैण राग़ी करि दीनसि दीन१।
सभि कारज ते२ खारज कीन ॥२९॥
गुरू कहो देखहि अबि ठौर।
चलीअहि दिज़ली नगर लाहौर३।
कितिक समैण मैण चलि पुन आवै।
जे तेरे चित महि इम भावै ॥३०॥
नाथ कहै निशफल अभिलाखा।
जैबे अुचित न मो कहु राखा।
खैणचि निकारा सार अुदारा४।
करि फोकट५ मो कहु अबि डारा ॥३१॥
सतिगुर भनोण कामना तेरी।
अग़मत जाचति फली घनेरी६*।
अपनो दोश जानि टिक रहो।
जिम बाणछति चित फल तिम लहो ॥३२॥
तूशन रहो जानि बच साचे।
मान राचि७ अग़मत कहु जाचे।
इकमठ सुंदर है तिस ठौर।
विच कासब भज़टी की गोर८ ॥३३॥
तिस को पिखि करि गुरू सराही।
भली थाइ सुंदर इस मांही।
१मैण (करामात कर) राग़ी सी (करामात खोह के आप ने) दीन कर दिज़ता।
२(करामात लगाअुण रूपी) सारे कंमां तोण।
३चलो हुण दिज़ली लाहौर आदि नगर देखीए।
४करामात रूपी वज़डा सार।
५फोग।
६सो फलं लगी है।
*भाव करामात इह दिखाई कि अुस विच जो सिज़धी सी सो खिज़च लई। कैसा चोजी जवाब है।
करामात दिखा बी दिज़ती ते अुस दी करामात दूर बी कर दिज़ती। चेटकी फकीराण विच करामात
तमाशिआण वाणू ही हुंदी है।
७हंकार विच रचके।
८कासब नामे भज़टी दी कबर है (अुस मठ) विच।