Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १४४

पिखहु रीब काज करि दीजै।
नहिण तिस निकट मजूरी लीजै।
जपुजी अरथ बिचारन करो।
सासु सासु अंतर निति धरो* ॥२४॥
गुरू नमिज़त करहु जुति प्रीति+।
दया करहु दीननि१ पर नीति।
जो अपनी कछु करहु कमाई।
गुर हित दिहु दसवंध बनाई ॥२५॥
साधिक सिज़ख२ आइ जो डेरे।
करहु सेव धरि प्रेम घनेरे।
सुनि अुपदेशरिदे तिन धारा।
जिम गुरु कहो करहि तिम कारा ॥२६॥
ग्रिहसती भगत हुते तिस ग्राम।
तुहमत३ दे करि तिन के नाम।
गहि कर पाइन पाइ सु बेरी।
काराग्रहि४ महिण दीनसि गेरी ॥२७॥
कितिक दिवस हुइ प्रभू सहाइ।
किस बिधि ते दीने निकसाइ५।
अरधि राति महिण सो चलि आए।
श्रिंखल६ तिन के पाइन७ पाए ॥२८॥
गुज़जर नाम लुहार अवास।


*एथे दो पिछलीआण तुकाण दा पाठ दो नुसखिआण विच होरवेण वी है:-
१. अनाथन को करीए बहु मान। तिह अुधरन की रीत पछानि।
२. साध अभागत की जो सेवा। दुखीए को कारज लखि सेवा।
+इस विच गुरू आदरश सेवा दा दज़सिआ है कि सेवा अुपकार जो भले कंम करो गुरू जी विच प्रीत
रखके गुरू नमिज़त करो। इस तर्हां ना आपणे मन विच अहंकार आवेगा, ना जिन्हां ते अुपकार
कीता है, ओहनां दी मैल दा बोझ पवेगा। जो शुभ करम सिज़ख करे गुरू अरपन करके करे।
१ग्रीबाण।
२साधनां करन वाले सिज़ख। (अ) साध यां सिज़ख।
३तुहमत = झूठी अूज। भाव (राजे ने) अूज लाके अुन्हां भगत ग्रिहसतीआण ळ। अंक ३० तोण राजे दा
पता लगदा है।
४कैदखाने।५ओह कैदखाने तोण कज़ढ दिज़ते किसे तर्हां।
६संगल।
७पैराण विच।

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