Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११) १४२
२०. ।धीरमज़ल दी वापसी॥
१९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>२१
दोहरा: सुनि मसंद के बाक को,
धीरमज़ल लघु धीर१।
कुछक दीन मन होइ कै,
कहो पाइ पर पीर२ ॥१॥
चौपई: भो मसंद! तैण भनो बनाइ।
जे अुह चहित मोहि मरिवाइ।
जिस के पास पंच सै नर हैण।
अस मज़खं अबि रहि अनुसरि है३ ॥२॥
तिस रजाइ को पाइ करंता४।
यां ते बचो मोहि नहि हंता५।
पूरब भी शांती चित सोइ।
कबहु कुकरम कीनि नहि कोइ॥३॥
अबि भी करि नहि सकहि खुटाई।
मुझ मन मैण इस ही बिधि आई।
अथवा तोहि कहो जिस भांती।
हुइ होइगी तैसिहु बाती ॥४॥
तअू सुनहु मो कहु दुखदाई।
भयो बिगार जि नहि सुधराई६।
पति महि रखंा७ अस पर गइअू।
जिस ते पूरब सम नहि भइअू ॥५॥
अपजसु बिथरहि सभिहिनि मांही।
इह बिरतांत दुरहि किम नांही।
सोढी ब्रिंद शरीक हमारे।
मिलहि परसपर हसहि अुदारे ॥६॥
१थोड़ा जिहा हौणसला करके।
२प्रंतू पीड़ा पाके (किहा)।
३(गुरू जी दे) अनुसारी रहिदा है।
४(कंम) करदा है (मज़खं शाह)।
५मैळ मारिआ नहीण। (अ) नहीण तां मैळ मार देणदा।
६जो सुधर नहीण सकदा।
७फरक।