Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति २) १५१
२०. ।पठां ने छुज़टी मंगणी॥
१९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति २ अगला अंसू>>२१
दोहरा: फतेशाह आवगन कौ,
सुनोण जबहि गुर सैन।
हरख भयो बीरन रिदै,
धीर सहित चित भै न ॥१॥
चौपई: कातुर कंपति ही धरि त्रासा।
-आइ अचानक समै बिनासा१।
सभि राजन की फौज बडेरी।
को लर सकहि अलप निज हेरी२- ॥२॥
हुते पंच सै रखे पठान।
चार खान सिरदार महान।
अपर मुखी मिलि कै सभि इक थल।
लगे बिचारनि पर बल निज बल ॥३॥
गुर ढिग बड हमरो इक डेरा३।
भार लरन को परहि घनेरा४।
कौम खान की होति बहादर।यां ते राखति हैण बहु सादर ॥४॥
गुरू ढिग अपर चमूं बहु जाती।
जानहि कहां शसत्र की बाती।
अपर कार को करने हारे।
कहां लखहि संग्राम बिचारे ॥५॥
देखहि गन राजन की सैना।
भाजहि डरि करि धीरज है ना।
गोरी तीरनि की बहु मार।
हम पर परै जथा घन धार५ ॥६॥
घर के घोरे तहि मरि जैहैण।
बहुर गुरू दै हैण कि न दै हैण।
१(साडे) नाश दा समा अचानक आ गिआ है।
२आपणी थुहड़ी दिज़स रही है।
३इक साडा ही डेरा वज़डा है।
४बहुता साडे ते भार पएगा।
५बदल दी धार भाव मीणह वाण।