Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) १५२१९. ।कअुलां दी प्रारथना॥
१८ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ५ अगला अंसू>>२०
दोहरा: तिस की महितारी तबै, दुहिता लई अुठाइ।
हाइ हाइ सो करि रही, म्रिदुल सेज पर पाइ* ॥१॥
चौपई: चोटनि को कीनसि अुपचारी।
पिखि काग़ी को काढति गारी।
देती धीरज सहत दिलासा।
कितिक काल थित तनुजा पासा ॥२॥
पुन दासी को निकट बिठायो।
आप अपर कारज चित लायो।
कौलां तन मन ते दुख पाइ।
हाइ हाइ करती बिललाइ ॥३॥
दासी ने तिस चित की जानी।
गुपत बारता बूझनि ठानी।
कौन हुतो जिस देखति रही?
पिखि काग़ी हटके द्रिग नही१ ॥४॥
तबि कौलां ने सकल बताई।
तिस नर की सुधि मोहि न काई।
पिखो अचानक मन ठगि लयो।
रही न सुधि जड़्ह सम तन भयो ॥५॥
काग़ी ने मारति लिय नामू।
गुरु हिंदन को मुख अभिरामू।
श्री हरि गोबिंद महां बिचज़छन२।
महांराज के जिस महि लछन ॥६॥
का अुपमा करि तोहि सुनावोण।
जिस के सम को अपर न पावोण।
काग़ी नेमारी, गुन भयो।
नाम पता प्रिय को सुनि लयो ॥७॥
हे दासी! तूं करि अुपकार।


* पा:म्रिदुल सोजी पर जाइ।
१नेत्र नहीण हटाए।
२प्रबीन।

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