Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १५५
चअुथी अुपजी भगति महांन ॥२४॥
गान, विराग, जोग, शुभ तीन।
पुरख रूप१ इन को मन चीन।
माया ले इन को भरमाइ।
बडे जतन ते अुबरो जाइ ॥२५॥
भगति अहै पतिज़ब्रता नारी।इस पर नहिण माया बलु भारी।
इसत्री को इसत्री न भ्रमावै।
धरहि भगति तिस प्रभू मिलावै ॥२६॥
माया नटनी चातुर छल ते२।
सभिनि भ्रमाइ लेति निज बल ते।
सुनि सिज़खन बूझे गुर३ फेर।
इन चतरनि को रूप बडेर ॥२७॥
करि बरननि सभि दिहु समुझाइ।
जिस ते हम प्रापत हुइ जाइण।
जनम मरन को बहुरि न पाइण।
अनद रूप महिण रहैण समाइ ॥२८॥
तबि श्री अंगद बहुर अुचारा।
इक बिराग है अुभै प्रकारा४।
इक मन को, इक तन को होति।
बडि भागनि के रिदै अुदोति५ ॥२९॥
सकल पदारथ तागन करै।
धन, बनिता६, सुत सभि परहरै।
हठि करि बाहरि को७ तजि देति।
रहै८ वाशना रिदे निकेति९ ॥३०॥
१ए पुलिग होण करके मरद हैन, माइआ इसत्री लिग है।
२छल करन विच माइआ नटनी वाणू चतुर है।
३पुज़छिआ गुरू जी तोण
४दोइ तर्हां दा।
५प्रगट हुंदा है।
६इसत्री।
७बाहर दे (पदारथ)।
८टिकी रहिंदी है।
९घर रूपी रिदे विच।