Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन २) १५२
तिनहु पज़त्रिका दई निकासि।
ग्रहण करी कर मांहि हुलास।
ततछिन खोलि भली बिधि हेरे।
अमरावती बरण१ जिस केरे ॥३६॥
पड़्हि करि समुझे सरब ब्रितंत।
तिन सन बात करी भगवंत।
प्रभु जी! अबि बैकुंठ सिधारो।
कारज इहां लीन करि सारो ॥३७॥
जेकरि रहिबो चहहु क्रिपाला।
रहहु धरातल करहु निहाला।
हुकम अकाल पुरख को कहो।
आगे करहु जथा चित चहो ॥३८॥
करता पुरख अकाल क्रिपाना।
तिस पित के हो पुज़त्र बिसाला।
दुशट तुरक की जड़्हां अुखारी।
पंथ खालसा अुतपति भारी२ ॥३९॥
सूधा मारग जग बिसतारा।
करता पुरख भजन निसतारा।
करि करि जुज़ध क्रज़ध भट भारे।
दुशट अनिशटी चुनि चुनि मारे ॥४०॥
सुनि क्रिपाल तिन संग अुचारी।
हम ने करी अज़ग्र हीतारी।
हुकम अकाल पुरख को जैसे।
सिर पर धरि हम मानहि तैसे ॥४१॥
इज़तादिक कहि सुनि करि भले।
नभ के मग ही तूरन चले।
एक जाम लगि रहे इकंत।
निकसे वहिर बहुत भगवंत ॥४२॥
बदन प्रफुलित कमल समाना।
पदम पांखरी आणख महाना।
१सरग दे अज़खर।
२अुतपत कर दिज़ता है (तुसां ने) भारा खालसा पंथ।