Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति १) १५६

१९. ।गुरू जी दी वीर रसी नित क्रिया॥
१८ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति १ अगला अंसू>>२०
दोहरा: इस प्रकार श्री सतिगुरू, गोविंद सिंघ सुजान।
बल जुति वधहि सरीर बड, करहि नरनि कलान ॥१॥
चौपई: आयुध बिज़दा कहु अज़भासहि।
अपर सकल ही गेरहि पासहि।
वहिर जाइ धरिवाइ निशाना।
करहि चलावनि धनु ते बाना ॥२॥
थिर बीरासन होइ चलावहि।
कबि ठांढे हति लछ गिरावहि।
कबहु कुवादा१ ऐणचनि करहि।
जिम भुजदंड अधिक बल धरहि ॥३॥
सुनहि पितामे की२ वडिआई।
परे जंग बड भट समुदाई।
दीह कठोर सरासन धारहि।
शज़त्र अनेकनि ते करि पारहि३ ॥४॥
कंक पंख लगि मोटिय काना।
खपरेमुखी४, बडे करि बाना।जिन के आगे अरो न कोई।
कई बार बड संघर होई ॥५॥
सुनहि चौप चित अधिक वधावहि।
कारीगरनि हग़ूर बुलावहि।
दे दे सीख घरावहि खपरे।
इसी रीति गन आयुध अपरे ॥६॥
सेले५, सांगन, भाले भले६।
कारीगर ले ले गन मिले।
हेरि हेरि शसत्रन हरखावै।


१कमान जो करड़ी ना होवे, कसरत करन वाली कमां।
२भाव श्री गुरू हरि गोबिंद जी दी।
३पार कर दिंदे सन।
४तीर चौड़े फल वाले।
५नेजे।
६चंगे।

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