Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १६६

१४. ।श्री गुर अमर दास जी दी मुज़ढली कथा॥
१३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १ अगला अंसू>>१५
निसानी छंद: संगबालिकनि खेलहीण, निति गुरू क्रिपाला।
हरख शोक नहिण जिनहुण के, इक रस सभि काला।
दीन बंधु तारन तरन, सिज़खी बिदताए।
जगे भाग जिन नरनि के, चरनी लपटाए ॥१॥
करोण निरूपन अबि कथा, भज़लन कुल टीका१।
आइ मिले जिस रीति सोण, सेवन किय नीका।
इक बासुरके* ग्राम है, तहिण बसहि निकेतं।
तेजो छज़त्री+ भाग बड, निस दिन प्रभु चेतं२ ॥२॥
भले करम महिण प्रीति अुर, भज़लन३ कुल मांही।
धीरज धरम बिशाल जिह, अवगुन चित नांही।
तिन के सुत अुतपति भए, श्री अमर बडेरे।
अपर भए पुन तीन सुत, हरखति भा हेरे ॥३॥
खेती क्रिति को सुत करहिण, तेजो सुख पावै।
बैठि रहहि सिमरहि प्रभू, भगती चित लावैण।
बाह करे सभि सुतनि के४, पिखि सहिज सुनूखा५।
अुर महिण अधिक प्रमोद६ ही, बड भाग अदूखा७ ॥४॥
आपो अपने काज महिण, चारहुण सुत लागे।
बीत गयो चिर काल ही, पौत्रे पिखि आगे।
अमरदास निज बास८ महिण,
चिरकाल बितावा।
इक दिन रिदै बिचारिओ-हुइ बैस बिहावा ॥५॥


१भाव गुरू अमर दास जी दी।
*स्री अंम्रितसर जी तोण पंज छे मील ते है।
+पा:-खज़त्री।
२सिमरदे।
३भज़ले, खज़त्रीआण दी इक जात है।
४सपुज़त्राण दे।
५ळहां दे।
६अनद हुंदा है।
७दुखां तोण रहित है।
८घर।

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