Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ३)१७२

४. ।मसंदां दे खोट। चेतो॥
१३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ३ अगला अंसू>>१५
दोहरा: जथा धनी निज दरब को,
साधन सोधन कीन१।
घाट बाढ को समुझि कै,
कहूं लीन कहूं दीन ॥१॥
चौपई: तोण कलीधर लगहि संभारनि।
संगति चहुं दिशि की जिस पार न२।
कारदार लखि बडे मसंद*।
इन पीछे सगरे सिख ब्रिंद ॥२॥
लिखे हुकमनामे सभि थान।
पुरब बसोए को बड जानि।
सभि आवहि सतिगुर के दरशन।
संग संगतां लै मसंद गन ॥३॥
देश बिदेशनि लिखे पठाए।
सभिहिनि कौ गुर हुकम सुनाए।
सुनि सिज़खन कै हरख सु होए।
गुर दरशहि जबि दिवस बसोए ॥४॥
करति प्रतीखनि सो दिन आवा।
चलिबे हित सभि मन ललचावा।
निज निज संग संगतां ब्रिंद।
मग अनदपुरि चले मसंद ॥५॥
अधिक दरब निज ग्रिहि पहुचाए।
देनि हेतु गुर अलप सु लाए।
आपस महि मसंद मिलि गए।चोर चोर सभि इकठे भए ॥६॥
नहीण त्रास गुर को अुर धरैण।
-हमरे बिन बैठे का करैण३।
दरब सकेलहि हम फिरि सारे।

१(इधर अुधर) सोध साध करदा है भाव चंगी तर्हां विचारदा है।
२जिस दा पार (अंत) नहीण।
*पा:-बड लगे मसंद।
३(गज़दी ते) बैठे साडे बिनां (गुरू जी) की करनगे।

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