Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ४) १७२
२३. ।दुनीचंद ने नस जाणा॥
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दोहरा: अुदे सिंघ जानोण भले-कातुर भयो मसंद।
त्रास करति है मरन ते चहति पलायो मंद- ॥१॥
चौपई: धीरज देनि हेतु सो बेला।
दुनीचंद कोण अुठि मन हौला१।
पुशतनि चली मसंदी आई।
गुर घर ते निज परव्रश पाई ॥२॥
सुख दुख भोगनि इन के हाथ।
हम तुम को अुचितै धरि माथ।
संग मतंग जि तोहि लरावहि।
तअु केहरि बल तोहि बनावहि ॥३॥
२तुझ मराइ करि अपनि पराजै।
किम प्रभु करहि निबाहहि लाजै२।
तूं हाथी को मारहि जबै।
अधिक बडाई पैहहि तबै ॥४॥
अपनौ काज बनावहि आपू।
तोहि बधावहि घनो प्रतापू।
साहिब काम परहि जबि आइ।
इक सेवक पर बिच समुदाइ३ ॥५॥
लाखन महि जबि एक बुलईअहि।
सफल बडाई को तबि पईअहि।जानहि सेवक निज को धंन।
तन मन ते पति४ करहि प्रसंन ॥६॥
सुनि करि दुनीचंद पुन कहो।
हित सभि को तैण कोणहु न लहो।
भली देहि मो कअु वडिआई।
दुरद बली जबि चीर बगाई ॥७॥
१मन विच हौल किअुण अुठिआ है।
२तैळ मरवाके आपणी हार (करावंी है, इह गल) प्रभू जी कीकूं कर सकदे हन, भरोसा रज़ख लाज
निबाहुणगे।
३सारे सेवकाण विचोण इक सेवक ते।
४मालक ळ।