Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) १७३२२. ।श्री अंम्रितसर आए॥
२१ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ५ अगला अंसू>>२३
दोहरा: कौलां करति प्रतीखना, लोचन रही लगाइ।
दासी संग सहाइता, चाहति काज बनाइ ॥१॥
चौपई: जबि सतिगुरु लखि मंदर काग़ी।
तरे दरीची१ के किय बाग़ी।
ततछिन कौलां लखि आगवनू।
तूरन चहति तजो निज भवनू ॥२॥
सतिगुरु अग़मत जुति रिपुदवनू।
जानि रिदै डर करहि न कवनू२।
धरि कमंद तर को लरकाई३।
कर दासी को द्रिढ गहिवाई४ ॥३॥
तूरन तरे अुतर करि आई।
गुरु पग पंकज गहि सिर लाई।
रिदे अनद बिलद अुमंगा।
भयो रोम हरखन सभि अंगा ॥४॥
गदगद गिरा न कुछ कहि जाई।
गही बाणहु गुर बेल५ चढाई।
प्रेरो हय पुरि बाहिर आए।
बडे बेग बायू सम जाए ॥५॥
कितिक दूर जबि गए अगारी।
खरे पंच सिख आयुध धारी।
जेठा आदिक बीर बिसाले।
मिले गुरू संग आगे चाले ॥६॥
खशट तुरंग चपल बलि भारी।
चलहि चाल सुखदा असुवारी।थोरे काल दूर चलि जाई।
नहि असवारन परहि लखाई ॥७॥


१बारी।
२किसे दा डर नहीण करदी (कौलां)।
३कमंद हेठ लटकाई।
४फड़ाई (कमंद)।
५(घोड़े दी) पिज़ठ ते।

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