Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 167 of 626 from Volume 1

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १८२

१६. ।स्री अमरदास जी दे सेवा करन दा प्रसंग॥
१५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १ अगला अंसू>>१७
दोहरा: कितिक दोस बीते जबै, चित महिण चितवन कीन।
-सेवा चहीये गुरू की, जिस ते होइण प्रसीन१ ॥१॥
सैया छंद: बे परवाह गुरू है जज़दपि२
चिज़त मैण जिन के चाह न कोइ।
तदपि दास निज धरम बिचारहिसेवा करहि भाअु मन भोइ३।
प्रिथम जुगन महिण तप को तापहिण
छुधा पिपासा सहि करि सोइ।
पंचागनि तापहिण४, जल पैठहिण५,
बरखा सहहिण, नगन तन होइ ॥२॥
एक चरन पर ठांढे होवति,
अूरधि बाहू६ किते रहंति।
कै लटकति हैण अूपर पद करि,
चहैण प्रसंन होहि भगवंति।
सो तप फल अब कली काल महिण
सति संगति सेवन करियंति।
जल ढोवनि अर लकरी लावनि,
करन बीजनो७ प्रभु सिमरंति८ ॥३॥
चरन पखारनि अंनि पकावनि
इज़तादि जेतिक हैण आनि।
मिलि सतिसंग करन जो सेवा
अधिक तपन९ फल होहि महान-।
इमि बिचारि श्री अमर करो अुर


१प्रसंन होण।
२भावेण।
३प्रेम मिले मन नाल।
४पंज धूंीआण ताअुणदे।
५जल प्रवेश करदे।
६अुज़पर ळ करके बाहां।
७पज़खा झज़लंा।
८सिमरदिआण।
९तपां तोण बी।

Displaying Page 167 of 626 from Volume 1