Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति २) १८०
२४. ।महंत क्रिपाल। दल दी चड़्हाई॥
२३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति २ अगला अंसू>>२५
दोहरा: श्री गुरु गोविंद सिंघ जी, सनमुख देखि महंत।
मुसकावति बोले बचन, कली सीस सुभंति ॥१॥
चौपई: कहो महंत! चेलका कहां१?
नित जो अचहि तिहावल महां।
खेत मुलाइम चरबेहारे।
पसु हरिआअु२ मनिद सिधारे ॥२॥
भुगतन हित३ कराहि नित बाणछे४।
गमनहि संगति महि जित आछे५।
कारज परे छोर इम गए।
जिम पाहुननिस बसि सुख लए६ ॥३॥
कहां भयो जो अुडगन७ नांही।
दिपतै चंद दसौण दिशि मांही।
सुनति क्रिपाल महंत अुचारी।
गुर चेले सभि शरणि तुमारी ॥४॥
भले बुरे संभारन वारे।
तुम हो, गुर पूरन बलि भारे।
बडे भाग कै प्रापति होवा८।
संकट जनम मरन को खोवा ॥५॥
ब्रहमादिक सनकादिक सारे।
शेख सारदा९ पाइ न पारे*।
धान विखै जोगीशर धावैण।
१चेले किज़थे हन?
२हरे पज़ते जिज़थे दिज़सं अुथे दौड़ के अज़पड़न वाला पसू।
३खां वासते।
४चांहवदे सी।
५जिज़थे चंगे (पदारथ देखदे सी)।
६जिवेण प्राहुणा सुख लैके रात बिताके (सवेरे छोड़ जाणदा है)।
७तारे (रूपी चेले)।
८करके प्रापत होइआ (आप दा दरशन असां ळ)।
९शेशनाग अते सरसती।
*कोट बिशन ब्रहमे त्रिपुरारी। इन पावोण पर दिजियै वारी। ।संत क्रिपाल जी दी ग़बानी, गुर
बिलास अंक २३० धिआ ६।