Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ४) १८७२५. ।बचिज़त्र सिंघ ळ तिआर कीता॥
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दोहरा: सुनि सिंघन ते सतिगुरू, सभि दिशि द्रिशटि चलाइ।
करे बिलोकनि ब्रिंद ही, चहुदिशि महि तिस थाइ ॥१॥
निसपालक छंद: स्री गुर प्रयंक निस के बिच सदीव हीण।
होवहि सुचेत रखवार थित थीव हीण।
बिंसत सु पंच गिनती तिनहु जानिये१।
जागति रहंति गहि आयुध सु पानिये२ ॥२॥
पासहि रहंति सभि खास३ हरखाइ कै।
जामनि मझार करि सेव सुख पाइ कै।
देखनि करे सु प्रभु एक सम बीर हैण४।
जंगनि निसंग भट संग हित धीर हैण५ ॥३॥
नराज छंद: तिनहु मझार एक है, बचिज़त्र सिंघ सूरमा।
बली बिलद बाहु दंड, शज़त्र ते रूरमा६।
सु राजपूत जाति ते, मुछैल७ छैल जानिये।
क्रिपान ढाल अंग संग, जंग मैण महांनिये ॥४॥
दोहरा: पोशश पट बहु रूप की, पहिरति अपने अंग।
पिखि प्रभु कहि बहुरूपीआ, भयोसु संगा संग८ ॥५॥
चंचला छंद: श्री गुरू बिलोक कै, बिलद ओजवान जानि।
सामहे थिरो सु बीर, हाथ धारि आयुधान।
मानि है प्रभू सु बाक, है अनद धीर मांहि।
बासतो हग़ूर नीति, भाअु दीह चीत जाणहि ॥६॥
ललितपद छंद: बिज़दा नेजे मारनि की महि,
बुज़धिवान बड जानै।
चढि तुरंग कै पैदल है करि,
१जदोण रात ळ श्री गुरू जी पलघ पर (बिराजदे सन तदोण) नित ही सावधान रखवाले (पलघ पास)
इसथित हुंदे सन, अुहनां दी गिंती २५ जाण लओ।
२हथ विच हथिआर पकड़ के।
३खास (श्री गुरू जी पास)।
४(अुहनां आपणे निज तन दे राखे सूरमिआ वज़ल) तज़किआ कि इको जिहे बहादर हन।
५जंग विच सूरमिआण दे नाश करन लई निरभै धीरज वान हन।
६शज़त्र पर भारी है।
७बड़ीआण मुज़छां वाला।
८इस करके अुह (बहुरूपीआ) संगा वाला हो गिआ।