Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १९८

जग जीवका तुम हज़थ१ ॥२५॥
बर दीन दादश हेर।
सु प्रसंन होइ बडेर।
गर संग लावन कीनि२।
पुलकाइ प्रेम प्रबीन३ ॥२६॥
मम रूप भे मिलि अंग।
सलिता मिले जिमि गंग।
जिमि बूंद सिंधु मझार।
तिम एक रूप हमार ॥२७॥
दोहरा: करना पावक दौ बिखै, मिलि सरूप इक होइ४।
तिम हम तुम एकै भए, भेद न जानिय कोइ ॥२८॥
चौपई: तुव तन महिण हुइ करि परवेशु।
करने हैण जग काज बिशेशु।
इमि प्रसंन इक रूप बनायो।
सतिगुर सेव सकल सफलायो++ ॥२९॥
गुर ढिग घाल निफल नहिण होइ।
बाणछत पाइ करति भा जोइ।
कहि श्री गुरु सिर मुकट अुतारा।
बरख इकादश को जो धारा ॥३०॥
जिस महिण जीव कीटीयन५ आदि।
धरो अुतारि सुनति+ गुर नाद६।
सुंदर जल इशनान कराया।
बसत्र नवीन सरब पहिराया ॥३१॥
मैण अपने असथान बिठावौण।गुरता गादी दै हरखावौण।


१सारे जगत दी रोग़ी तुसाडे हज़थ है।
२गल ला लिआ।
३प्रेम विच रोम खड़े हो गए।
४अज़ग दा चंगिआड़ा बन अगनी (महान अज़ग) विच मिल करके इक रूप हो जाणदा है।
++पा:-सकल फल लायो।
५कीड़ीआण।
+पा:-सुनो, सुनो।
६(आगा दी) आवाग़।

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