Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ७) ३२

३. ।भाई गुरदास काणशी विखे॥
२ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ७ अगला अंसू>>४
दोहरा: निकसो डेरा ताग करि,
हिम रितु बी तिस काल।
चलति पंथ नित चरन करि,
श्रम को लहति बिसाल ॥१॥
चौपई: अधिक बसत्र बिन सीत न जावै।हुतो जु ढिग, तिह कौन अुठावै।
कित भोजन प्रापति, कित नांही।
नितप्रति गमनति मारग मांही ॥२॥
महां खेद ते दुरबल होयो।
नहि आगै अस संकट जोयो।
पाइनि परे फालरे१ घने।
चलति पंथ नित श्रम के सने ॥३॥
नीठ नीठ करि प्रापति होवा।
कितिक दिवस महि शिवपुरि२ जोवा।
किस थल जाइ कीनि बिसरामू।
तहि गुर संगति के बहु धामू ॥४॥
जो सिख दरशन के हित आए।
तिनहु पछान लीनि हरखाए।सभिनि जोरि कर सेवा ठानी।
चरन पखारे ताते पानी३ ॥५॥
चांपति हैण चित चौणप करंते।
सादल भोजन करि अचवंते।
जो तबि हुते पुरी महिपाला।
सिज़ख गुरू को प्रीत बिसाला ॥६॥
सुनि महिमा इस की बुलवायो।
कहि अूचासनि पर बैठायो।
बूझति भयो गुरू की गाथा।
तबि गुरदास भनी न्रिप साथा ॥७॥


१छाले।
२काणशी।
३गरम जल नाल।

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