Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ६) २०९
२७. ।वकील दा आअुणा॥
२६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ६ अगला अंसू>>२८
दोहरा: भए प्रभाति बिलोकते, निज निज थाइ छुपाइ।
तंबू महि ठाकुर निकट, खोली गोन बनाइ ॥१॥
चौपई: दासन आदिक सकल हटाए।
आपहि खोलन को ललचाए।
अंतर तेकरि डार निकारे।
चमरे पनही हाड निहारे१ ॥२॥
हेरति गेरहि दूर बगावहि।
बिशटा हाथ लगे पछतावहि।
इक तौ अपना धरम गवायो।
दुतीए लेते२ जंग मचायो ॥३॥
त्रिती निपाक३ जु छूवति भए।
मारे बिना मूढ मरि गए।
लजति आपस महि नहि कहैण।
रिदै बिसूरन को बहु लहैण ॥४॥
धिज़क धिक अपनो जनम बखानैण।
धरमहीन की दुरगति जानैण।
भयो सभिनि को तबि अुपहासा।
बिकसे सतिगुर पेखि तमाशा ॥५॥
कहति सिंघ जे निकट हकारे।
कहि दुरजन के धरम निहारे?
सभि तुम हमरे पास बखानति।
-गिरपति तुरक धरम को ठानति- ॥६॥
सभि परबत बासी मति काचे।
इह कबि बैन भनहि नहि साचे।
हम कहि रहे न छल तुम जाना।
जे करते तजि दुरग पयाना४ ॥७॥
तुरक गिरेशुनि की बड सैना।
१(गुणां) लैं वेले।
२अपविज़त्र।
३वेखिआ जे?
४जे असीण किला छज़ड टुर जाणदे।