Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) २१०

२६. ।गुरू जी दा पटंे तोण विदा होणा॥
२५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १२ अगला अंसू>>२७
दोहरा: आइ पिता के ढिग थिरे, श्री गोबिंद सिंघ राइ।
चलनि सुनोण पंजाब को, बोले अनद बधाइ ॥१॥
चौपई: आप पिता जी! करहु पयाना।
देश पंजाब सु दूर महाना।
बास हमारे बडन बडेरे।
तित ही सुनो महां सुख हेरे१* ॥२॥
हम को संग चलहु ले अबै।
चाहति देश बिलोको सबै।
अपने नगर निकेत अुसारे।
तहां बसहिगे सदा सुखारे ॥३॥
नहि इस देश रहनि हम भावै।
तित ही तुमरे संग सिधावैण।
सुनि श्री तेग बहादर भाखा।
करहि भले पूरन अभिलाखा ॥४॥
तित ही हुइ है बसनि तुहारो।
निज प्रभाव को तहां बिथारो।
सकल समाज बिभूति बिसाला।
करहु आपनो भलो अुजाला ॥५॥
तअू सुनो जबिसमां सु आवै।
तबि ही करिबो सभि को भावै।
मग महि चलनि बिखाद बडेरा।
श्रम आदिक ते सभिनि घनेरा२ ॥६॥
खान पान बिन समैण सु होति।
नित प्रति चलिबो रवी अुदोत३।
लघु सरीर इस लायक नांही।
खेलहु मिलहु बालिकनि मांही ॥७॥
मन भावति करि खानु रु पान।

१सुणिआण है अुथे ही (वज़डिआण ने) वज़डे सुख देखे हन।
*पा:-तिम ही सुनि अुमाह मन मेरे।
२सभ ळ बहुता (दुख होवेगा)।
३सूरज चड़े अथवा धुज़पे।

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