Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ३) २१७

२४. ।भाई गुरदास ते प्रिथीए दा संबाद॥
२३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ३ अगला अंसू>>२५
दोहरा: इस प्रकार सोण दुशटता, दोनहु चित चितवंति।
श्री अरजन अपने रिदै, सरल सुभाव ब्रतंत१ ॥१॥
निसानी छंद: -हमरे पित को पुज़त्र है, पुन बैस बिसाला।
निकसो पुरि ते अुजर कै, तजि गयो दुखाला२।
अपजसु बिख के दैन को, सुनिसहि न सको है।
अपर अुपाव न कुछ बनो, अुठि जानि तको है ॥२॥
हमरो राखा एक नित, श्री प्रभु करतारा।
बुरो कौं करि साक है, हुइ बंक न बारा३।
अबि हकार करि तिसी कहु, पुरि बिखै बसावैण।
देहि बडाई तांहि बहु, कहि जस हरखावैण ॥३॥
अुजरो वहिर जु फिरति है, हमरी भी निदा।
-नहीण भात को पिखि सकैण, काढो करि चिंदा४।
गुरता दीनी पिता ने, नगरी इन५ छीनी।
देख सकहि नहि निकट की, कढि बाधा कीनी६ ॥४॥
त्रिसकारो बड भ्रात को, कीनि न सनमाना।
धन के लोभी गुर भए, इस बिधि ते जाना।
इज़तादिक नर भनति हैण, -श्री गुरू बिचारी।
-भज़ले बेदी तिहुण कुल, इम करति अुचारी ॥५॥
हम पर अवगुन धरति हैण, नहि भेव लखंते।
यां ते लावनि अुचित है, अपजसहि मिटंते-।
दयासिंधु पुन दया महि, इस रीति बिचारैण।
-वहिर फिरतिदुख पाइ है, युत सभि परवारै- ॥६॥
बहुर बिचारति गुरू जी, -तुरकनि ढिग जाना।
करहि पुकार सु नाअुण हित, भा कशट महाना।
हम लगि आवहिगे दुशट, इह बात न नीकी।


१वरतदे हन।
२दुखी होइआ।
३विंगा वाल नहीण होवेगा।
४चिंतातुर।
५भाव गुरू अरजन ने।
६दुख दिज़ता (अ) वाधा कीता।

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