Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ६) २२३
२९. ।माता जी ते सिंघां दा निकलन हित कहिंा॥२८ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ६ अगला अंसू>>३०
दोहरा: श्री गुजरी के संग मिलि, छुधति सिंघ समुदाइ।
करि मसलत आवति भए, जहि बैठे गुरराइ ॥१॥
चौपई: पूरब सिज़खनि बिनै बखानी।
सतिगुर कीजै क्रिपा महानी।
अपने जानि प्रान दिहु दाना।
मतो जंग को करीअहि हाना ॥२॥
दाईआ बहुर खालसे केरा।
लरहि समाज बटोरि बडेरा।
जंगल चलहु मवासी महां।
पहुच न सकै तुरक दल जहां ॥३॥
इहां दुरग महि निबरो सरब।
अंन न प्रापति खरचे दरब।
अपर समज़ग्री किम कर आवै।
बितो समैण बहु जंग मचावैण ॥४॥
निकसे हुइ बहु बिधि कज़लान।
होहि सरब कुछ, बचहि जि प्रान।
छुधा कशट ते जे मरि गए।
पुन को लरहि खाक हम भए ॥५॥
देखहु सिज़खनि को हित करि कै।
घाली घाल खेद बहु भरि कै।
अबहि बिदावा नांहि लिखावो।
खारज सिज़खी ते न करावो ॥६॥
छुधा कशट ते लिखि करि दैणगे।
प्रान बचावनि हेतु चहैणगे।
मरन लगो नर का नहि करै।
जीवन हेतु सरब परहरै ॥७॥
अपनि पंथ के बनहुसहाइ।
लेहु कशट ते प्रान बचाइ।
सुनि करि दीन बैन गुर बोले।
धीरज धरहु, नहीण मन डोले ॥८॥