Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ८) २२३३१. ।काले खां बज़ध॥
३०ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ८ अगला अंसू>>३२
दोहरा: लगी सैन सोण सैन तबि,
हज़थारन कहु मारि।
कालेखां सनमुख जयो,
नहि सतिगुरू निहार ॥१॥
चौपई: चंचल करति तुरंग नचायो।
श्री हरिगोविंद सनमुख आयो।
पहुचो निकटि धनुख संभारति।
खर खपरा गुन महि संचारित१ ॥२॥
गुरनि बंगारति बाक अुचारे।
प्रिथम तुमहु बहु खान संघारे।
जे तीरन को अधिक चलावति।
सभि महि बड बलवान कहावति ॥३॥
अबि मैण चलि आयो तुम ओरा।
कालेखान नाम लखि मोरा।
तुम को पकरनि शाहु पठायो।
बहु लशकर ले चढि मैण आयो ॥४॥
कै सभि को पलटा रण लै हौण।
नांहि त प्रान आपने दै हौण।
सावधान हुइ सहु मम बाना।
हतोण महां तीखन हित हाना ॥५॥
श्री हरिगोविंद सुनि मुसकाए।
जिस मग पूरब तुरक पठाए।
सो अबि बंद नहीण कुछ भयो।
सभिनि आइ भट रण करि लयो ॥६॥
नासहि शाहु बाहिनी सारी।हम ठांढे अबि तोहि अगारी।
जसु बिज़दा तीरनि की पाई।
सो अबि करहु देहु दिखराई ॥७॥
पूरब सहैण वार सर तोरा।


१चिज़ले विच जोड़दा है।

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