Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) २२७३२. ।श्री रामराइ जी दी दैशता॥
३१ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>३३
दोहरा: श्री गुर जेशठ पुज़त्र ने,
करि मतसर मन मांहि।
निज सम करिबे अनुज कहु,
कही शाहु के पाहि ॥१॥
चौपई: सुनि नौरंग ने रिदे बिचारा।
-इन मतसर करि बाक अुचारा।
आरबला है अलप तिनहु की।
रहनि मात ढिग बैस जिनहु की ॥२॥
किम आवहि हम करहि हकारनि।
नहि निकसो घर ते किस कारन।
भ्रातपने महि अधिक शरीका।
करहि दैश, नहि चाहहि नीका ॥३॥
जिम होयहु है सदन हमारे।
राज करो निज भ्रातनि मारे।
तिम सगरे जग मैण बरतारा।
होति शरीके महि दुख भारा ॥४॥
तैसी रीति इनहु महि भई।
मम सम लघु ने गादी लई।
तिन पठि दूत हकारोण जबै।
रिस करि स्राप न कुछ कहि तबै ॥५॥
प्रथम हकारे इह चलि आयहु।
अग़मत जुति कर इतहि पठायहु।
जो हम चहति सकल करिवायहु।
सरब रीति नीके पतिआयहु ॥६॥
अबि जे करि करि ग़ोर हकारहि।शाहु दैश कअु ठटहि बिचारहि१।
बडो भ्रात जे पहुचो पास।
मम अधीन पुन रहि का आस२- ॥७॥


१बादशाह दैश करदा है (इह) विचारनगे (गुरू जी)।
२फिर मेरे गोचरी की आसा (पूरी करनी) बाकी रहि गई है।

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