Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन १) २२७

सुनि डज़ले अुठि कीनसि तैसे।
घटा फटी घन गमने गै से१ ॥३३॥
गुरू बाक की शकति बिलोकि।
बिगसे* शरधालू सभि लोक।
गुर की कीरति घरि घर भरी।
राइबेल चंबेली खिरी ॥३४॥
+इक झूलं सिंघ नाम फिरंता।
हाथ दुतारा रुचिर बजंता।
मात सुंदरी की सुनि दासी।
सुनि कै कहो बाक तिस पासी ॥३५॥इह ठां कहां बजावन करैण।
चहैण बजाइ जि आवहु अुरै।
सुनि झूलं सिंघ बूझति अहै।
माता कहैण किधौण तूं कहैण? ॥३६॥
२माता कहै न, हौण ही कहौण।
रिस न होन दिहु३, इम चित चहौण।
सुनि झूलं सिंघ तहां पधारा।
सुर को करति बजाइ दुतारा ॥३७॥
सुदरी सोण दासी कहि दई।
सिंघ दुतारा वाइन ठई४।
बूझो मात शबद को गावै५?
कहो न गावै, इमहु बजावै६ ॥३८॥
केतिक चिर तहि बैठि बजायो।
अुठि झूलं सिंघ बहुर सिधायो।
गुरू अखेर गए तिस काला।


१हाथीआण वरगे बज़दल चले गए। (अ) अकाश विचोण चले गए।
*पा:-बिसमे।
+साखी पोथी दा प्रसंग है।
२दासी बोली।
३(माता जी ळ) गुज़से नां होण दिआणगी।
४वजावंां करदा है।
५किहड़ा शबद गाएगा?
६ऐवेण वजाअुणदा ही है।

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