Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २३०

पूरब नाम अहै जिस लहिंा।
अबि अंगद ही तिस को कहिंा।
नाम आन अपनो धरवायो।
कित कित ते नर है समुदायो ॥३२॥
टेकहिण मसतक होति अनीती।
नहीण साध, पुन ग्रिहसती रीती।
करहि पुजावनि लोकन पास।
बैठहि गुरता१ धरहि प्रकाश ॥३३॥
जे अस पदवी चाहति सोइ।
पट कखाय२ साधू सम होइ।
निज कुटंब ते होइ निराला।
ले अलब किहि पंथ३ बिसाला ॥३४॥
करहि पुजावन पुन सभि मांहि।
तअु बिपरीति नहीण हुइ तांहि।
पुज़त्र भारजा महिण इह रहे।
कथं४ पुजावन नर ते लहै ॥३५॥
तुम भी रिदे बिचारो बाति।
होति कि नहीण एहु अुतपाति५।तुम तो नहीण मानते तांहि।
इह नीके मैण जानति आहि ॥३६॥
तअू पिखहु तुम तिस के+ बासि६।
भयो कशट सभि को सु प्रकाश७।
अबि अुपचार करहु तिस केरा।
तबहूं बरखै मेघ बडेरा ॥३७॥
सभि मिल जावहु अबि अुस पासि।


१भाव गुरिआई दी गज़दी ते।
२कज़पड़े भगवे (पहिन के)।
३किसे भेख दा।
४किअुण।
५अुपज़द्रव।
+पा:-ते।
६वज़संे करके।
७प्रगट।

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