Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ९) २२८३१. ।काणशी॥
३०ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ९ अगला अंसू>>३२
दोहरा: गाढे बडे जु शर्हा महि,
मानी मूढ गवार।
नौरंग को सिखरावहीण,
करि निज दीन हंकार१ ॥१॥
चौपई: किनहु न इन के पाज अुघारे।
बिन जाने देते धन सारे।
मति खुदाइ तुमरे अस पाई।
जिस ते छानी२ बात न काई ॥२॥
बुत प्रसती पर होयहु दंड।
जहि कहि रावरि हुकम प्रचंड।
भयो त्रास हिंदवान बिसाले।
आइ शर्हा महि बनैण सुखाले ॥३॥
सुजसु बिलद आप कहु होवा।
तेज प्रचंड सभिनि थल जोवा।
सुख पावैण जे तुरक बनैणगे।
बिना बने बहु ब्रिथा बहैणगे ॥४॥
इस मकान हिंदुनि को भारो।
काशी नाम महिद बिसतारो।
खरे सैणकरे ठाकुर दारे।
बुत प्रसती नर करति अपारे ॥५॥
आप चलहु तहि पिखहु पखंड।
मेटहु दीजै दंड प्रचंड।
तहि हिंदुनि को धरम बिनाशहु।
चलनि शर्हा महि बिखैप्रकाशहु ॥६॥
सो मकान जे देहु बिगार।
बनहि तुरक सभि दिशि ते हारि।
सुनति शाहु मन मोद अुपावा।
तहां चलनि कहु करो अुपावा ॥७॥
१आपणे दीन दा हंकार करके।
२छुपी।