Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २३२

२२. ।तपे दा प्रसंग-जारी।॥
२१ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १ अगला अंसू>>२३
दोहरा: मूरख खहिरे क्रिखीकरि१, मन महिण निशचै ठानि।
निदक अघी दुरातमा२, दुशट बाक३ को मानि ॥१॥
चौपई: अनहित को बच* हित करि माना४।
गुरू महातम ते अनजाना।
महां मंद मति नौ दस मिले।
श्री सतिगुर के घर को चले ॥२॥
इमि तरकन हित गुरु ढिग गए।
गिरा कठोरी५ भाखति भए।
इहां बसन नहिण नीक तुमारो।
जहिण इज़छहु थल आन पधारो ॥३॥
बरखा हटी बिघन क्रिखि६ भारी।
अखिल ग्राम को संकट७ धारी।
सभिहिनि को अति चिंता हेत८।
अहै तुमारो एकनिकेत ॥४॥
एक ग्राम हित देश दुखावै९+।
तअु तिह तागन ही बनि आवै।
इक कुल हेत ग्राम दुख पाइ।
तौ तिस कुल को ताग कराइ ॥५॥
इक के तागे कुल बच रहै।
करहि तजनि यौण बुधि जन कहैण।
यां ते तुम घर तागन करे१०।

१खेती दे करन वाले।
२मंद आतमा वाले।
३दुशट (तपे) दे वाक ळ।
*पा:-बहु।
४वैर दे बचन ळ हित दा बचन मंन लिओ ने।
५कौड़े बचन।
६खेती।
७दुज़ख।
८चिंता दा कारन।
९दुख पावे।
+पा:-दुख पावै।
१०छज़डिआण।

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