Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २३३

सगरो ग्राम चिंत को हरे ॥६॥
इमि मन जानहु निकसि सिधारो।
नहीण घटी१ अबि रहनि तुमारो।
करहु अुताइल वसतु सम्हारो।
रहै शे धरि जाहु अगारो२ ॥७॥
पुन अपनी ले गमनहु सारी।
चले जाहु नहिण करहु अवारी३।
ग्रामाधीस ग्राम नर सारन४।
मतो एक है वहिर निकारनि ॥८॥
कोइ न पज़ख तुमारो करिही।
जिस ते रहहु धीर अुर धरिही।
बड बुधिवंत तपा जी कहो।-तिस को बसे तुमन दुख सहो५- ॥९॥
करी ग्राम पर क्रिपा बडेरि।
जतन बतायो बरखा केरि।
नई रीति तुम ने इहु धरी।
नहिण ग्रहसती, न फकीरी करी ॥१०॥
इसी दोश ते घन नहिण आवै।
क्रिखी शुशक, नीर ने बारखावै।
पंचाइत पति है इस ग्राम।
सो सभि कहिण, निकसहु तजि धाम ॥११॥
सुनि कै श्री गुर अंगद कहो।
बास हमार काल चिर६ रहो।
निति बरखा बरखति क्रिखि होई।
हमरो दोश कहै किमि कोई? ॥१२॥
पुरशन के करमन अनुसार।
सुख दुख अुपजति बारंबार।


१घड़ी तक।
२बाकी वसतां (किसे) घर धर जाओ।
३देरी।
४ग्राम पती, नबरदाराण दा ते पिंड दे लोकाण सारिआण दा।
५भाव गुरू अंगद दे एथे वसं नाल तुसां दुख पाइआ है।
६चिर काल दा।

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