Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २३७
करि सकि है समता, अस नांही१।
छिमावंत छिति जिमि२ सभि काला।
कै रावरि मैण छिमा बिसाला ॥३२॥
आप समरथ चहहु सो करहु।
सभिनि डरावहु तुम नहिण डरहु।
एक बाक सोण बिना अुपाइ।
मारहु सभिहिनि देहु जिवाइ३ ॥३३॥
तिन के कहे निकसि अबि आइ।
नहीण आप ने कछू जनाइ।
जोण तुम भावहु सोई भले।
हमरो कहनि नहीण कुछ चले ॥३४॥
इमि कहि मौन धारि करि बैसे।
पिखहिण गुरू गतिकरि हैण जैसे।
निज प्रताप को नहीण जनावहिण।
अपर नरनि सम अपन दिखावहिण ॥३५॥
इति श्री गुर प्रताप सूरज ग्रिंथे प्रथम रासे श्री अंगद को ग्राम ते
निकासन प्रसंग बरनन नाम दोइ बिंसती अंसू ॥२२॥
१ऐसा (कोई) नहीण।
२धरती है जिवेण।
३किसे अुपाव दी लोड़ नहीण, इक वाक नाल ही सभ ळ मार जिवाल सकदे हो।