Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 227 of 626 from Volume 1

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २४२

दिवस रहो थोरो रवि जाइ१।
यां ते तूरण करहु अुपाइ ॥२६॥
रवि असतन ते२ पूरब काल।
जहिण जहिण तपा जाइ दरहाल३।
तहिण तहिण घन जल को बरखावै।
भरहिण खेत, बहु अंन पकावै ॥२७॥
बहु किदार हैण दिन रहि थोरा।
ले गमनहु निज निज दिश ओरा।
अंग प्रतंग४जहां लग जाइ।
तहिण लग धाइ मेघ बरखाइ ॥२८॥
निकसहि जबहि तपा निज डेरे।
तौ घन होइ, पता लिहु हेरे५।
पहुणचहि जबहि किदार महिण जाइ।
तबि देखहु घन जल बरखाइ ॥२९॥
इमि सुनि सभि के जागो चाअु।
कहति भए लिहु इह पतीआअु६।
गमने राहक सभि मिलि तहां।
सथित तपा गादी पर जहां ॥३०॥
गरब हरख महिण फूलो बैसा।
तेज तरे पै अुफनो जैसा७*।
क्रिखिकरि ब्रिंद जाइ करि कहो।
सुनहु तपा जी! नहिण घन लहो ॥३१॥
अबहि आप करुना को धारि।
अुठि करि पावहु चरन किदार।


१भाव डुज़बण विच।
२डुज़बण तोण।
३छेती।
४(अुस दा) अंग यां हरेक अंग भाव कोई अंग।
५परतावा देख लैंा।
६परतिआ लओ।
७जिवेण हेठां अज़ग (होवे ते) दुज़ध अुज़पर ळ फुल के चड़्ह आअुणदा है।
(अुफनना = सेक नाल फेन समेत अुज़पर ळ अुठंा)।
*पा:-तेज तुरे पै अुफनो जैसा =
जिवेण तिज़खे घोड़े अुज़ते कोई अुछलदा है।

Displaying Page 227 of 626 from Volume 1